‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’: लोकतंत्र को कमज़ोर करने की साज़िश या जनता का ध्यान भटकाने का हथकंडा?
लेखक : सय्यद फेरोज़ आशिक
स्वघोषित नॉन-बायोलॉजिकल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार के तीसरे कार्यकाल में भी अपनी एक पुरानी कला को पुनर्जीवित किया है: जनता का ध्यान भटकाने वाली रणनीतियों का इस्तेमाल। उनकी सरकार ने सत्ता में अपने 100 दिन पूरे करने के बाद एक नए हथियार का अनावरण किया – ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का प्रस्ताव। यह कदम जनता और मीडिया का ध्यान मणिपुर संकट, सेबी खुलासों और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों से हटाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।
18 सितंबर को कैबिनेट द्वारा ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के प्रस्ताव को मंजूरी देने के बाद यह मुद्दा फिर से चर्चा में आ गया है। इस विचार को लागू करने के लिए संविधान में दो महत्वपूर्ण संशोधन की आवश्यकता होगी, जिसके लिए लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत चाहिए। लेकिन एनडीए के पास यह बहुमत नहीं है। इस संदर्भ में, यह प्रस्ताव सरकार की एक और हेडलाइन मैनेजमेंट की कोशिश मात्र लगता है।
चुनाव खर्च और शासन की गुणवत्ता का भ्रम
सरकार का दावा है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ से चुनाव खर्च में कमी आएगी और शासन की गुणवत्ता में सुधार होगा। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, वर्तमान समय में चुनाव कराने में लगभग 4,000 करोड़ रुपये का खर्च आता है, और एक साथ चुनाव कराने से यह खर्च थोड़ा कम हो सकता है। हालांकि, जब राजनीतिक दल और उम्मीदवार चुनाव प्रचार में हजारों करोड़ रुपये खर्च करते हैं, तो चुनाव की आवृत्ति कम करने से कोई बड़ा वित्तीय लाभ नहीं होगा।
दूसरा तर्क यह है कि इससे शासन की गुणवत्ता में सुधार होगा, लेकिन यह दावा गलत साबित होता है। मोदी सरकार ने पहले भी देखा है कि जब चुनाव पास होते हैं, तभी महत्वपूर्ण योजनाओं और नीतियों पर जोर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर, 2024 के चुनावों से कुछ हफ्ते पहले पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों में कटौती की गई थी। जब चुनाव नहीं होते, तब जनता की जरूरतें अक्सर नजरअंदाज की जाती हैं।
क्षेत्रीय राजनीति और विविधता का अपमान
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा केवल दिल्ली-केन्द्रित शासन की तानाशाही मानसिकता को दर्शाती है। भारत एक संघीय ढांचा है, जहां राज्य सरकारों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। 1950 के दशक की तुलना में आज की राजनीतिक स्थिति बहुत बदल गई है। राज्यों की संख्या बढ़ी है, क्षेत्रीय दल मजबूत हुए हैं, और स्थानीय मुद्दे पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। इस परिप्रेक्ष्य में, ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का विचार क्षेत्रीय दलों और स्थानीय मुद्दों को दरकिनार करने की कोशिश मात्र है।
भाजपा की राजनीति और सत्ता की होड़
मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने पिछले नौ वर्षों में कई राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों को गिराने और सत्ता में आने के लिए दलबदल की राजनीति का सहारा लिया है। इस ट्रैक रिकॉर्ड के साथ, यह भरोसा करना मुश्किल है कि भाजपा ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ जैसे संवैधानिक संशोधन के जरिए वास्तव में लोकतंत्र को मजबूत करना चाहती है। यह विचार संघीय ढांचे और क्षेत्रीय आकांक्षाओं का अपमान है, जिसमें क्षेत्रीय दलों की पहचान को समाप्त करने का प्रयास किया जा रहा है।
वोटरों की बदलती प्राथमिकताएं
2024 के आम चुनावों में भाजपा के ‘एक राष्ट्र, एक नेता, एक पार्टी’ के मंत्र को मतदाताओं ने स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया है। राज्य आधारित दलों, जैसे कि डीएमके, तृणमूल कांग्रेस, और समाजवादी पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन किया, जिससे यह साबित हुआ कि भारतीय लोकतंत्र में विविधता और बहुदलीय राजनीति का महत्व बरकरार है।
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ एक और नौटंकी है, जो भाजपा की जनता का ध्यान भटकाने और अपनी सत्ता को मजबूत करने की रणनीति का हिस्सा है। मोदी सरकार के 10 साल बाद, मतदाता जुमलेबाजी से थक चुके हैं। जनता अब एक नेता या एक पार्टी की सत्ता नहीं चाहती। उनके लिए विविधता, क्षेत्रीयता और लोकतंत्र की बुनियादी आत्मा महत्वपूर्ण है, और ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ इस आत्मा को कमजोर करता है।