Editorial

नफ़रत की राजनीति और भारत का भविष्य: एक विस्तृत विश्लेषण

फेरोज़ आशिक की कलम से

24 नवंबर 2024 को उत्तर प्रदेश के संभल में घटी घटना न केवल पांच निर्दोष मुस्लिम युवाओं की जान ले गई, बल्कि इसने भारतीय लोकतंत्र और सामाजिक ताने-बाने को झकझोर कर रख दिया। मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने के नाम पर चल रही उकसाने की राजनीति ने इस त्रासदी को जन्म दिया।

घटना केवल अचानक हुई हिंसा का परिणाम नहीं थी, बल्कि एक लंबी साजिश की परिणति थी। जून 2024 में मस्जिद परिसर का पहला सर्वे बिना किसी घटना के शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हुआ था। लेकिन नवंबर में आयोजित दूसरे सर्वेक्षण के दौरान, एक उन्मादी भीड़ ‘जय श्रीराम’ के नारों के साथ मस्जिद की ओर कूच कर रही थी। इसने न केवल स्थानीय मुस्लिम समुदाय के धैर्य की परीक्षा ली, बल्कि राज्य मशीनरी और प्रशासन की विफलता को भी उजागर किया।

राजनीतिक पृष्ठभूमि: चुनावी हार और नफरत की रणनीति

2024 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को मिली हार ने उसे अपनी चुनावी रणनीति पर पुनर्विचार के लिए मजबूर कर दिया। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हार, जो कभी बीजेपी के अभेद्य गढ़ माने जाते थे, पार्टी के लिए एक बड़ा झटका साबित हुई। सत्ता में बने रहने की हताशा ने पार्टी को उन पुराने विभाजनकारी नारों और एजेंडों पर लौटने के लिए विवश कर दिया, जिनका उद्देश्य धार्मिक भावनाओं को भड़काकर वोट हासिल करना है।

“मथुरा-काशी बाकी है” का नारा इसी रणनीति का हिस्सा है। इसे हिंदू समुदाय के भीतर ऐतिहासिक अन्याय की भावना भड़काने और मुसलमानों के प्रति अविश्वास फैलाने के उद्देश्य से गढ़ा गया है। इस एजेंडे को फैलाने के लिए मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने का अभियान चलाया जा रहा है, और इससे जुड़े हर विवाद को मीडिया और सोशल मीडिया पर प्रचारित किया जा रहा है।

न्यायपालिका की भूमिका और संवैधानिक संकट

1991 में भारत सरकार ने उपासना स्थल अधिनियम (विशेष प्रावधान) लागू किया था, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि धार्मिक स्थलों की स्थिति वैसी ही बनी रहे जैसी वह 15 अगस्त 1947 को थी। यह अधिनियम अयोध्या के राममंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद को छोड़कर सभी धार्मिक विवादों को खत्म करने के लिए बनाया गया था।

लेकिन हाल के वर्षों में न्यायपालिका ने इस कानून की मूल भावना को कमजोर करने वाले फैसले दिए हैं। वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें मस्जिद परिसर के सर्वेक्षण की अनुमति दी गई थी। यह फैसला न केवल उपासना स्थल अधिनियम का उल्लंघन था, बल्कि उसने अन्य मस्जिदों पर इसी तरह के विवादों को जन्म देने का रास्ता भी खोल दिया।

इतिहास का दोहन: समाज को बांटने की चाल

भारतीय इतिहास धार्मिक संघर्षों और धार्मिक स्थलों के रूपांतरणों का साक्षी रहा है। बौद्ध मठों को हिंदू मंदिरों में बदला गया, और हिंदू मंदिरों को मस्जिदों में। इतिहासकार राहुल सांकृत्यायन और अन्य शोधकर्ताओं ने स्पष्ट रूप से बताया है कि बद्रीनाथ जैसे हिंदू तीर्थस्थल कभी बौद्ध मठ हुआ करते थे।

क्या इसका मतलब यह है कि आज हम अतीत की गलतियों को सुधारने के नाम पर समाज को बांट दें? अगर मस्जिदों के नीचे मंदिर ढूंढने की प्रक्रिया शुरू की जाती है, तो क्या बौद्ध मठों को पुनः स्थापित करने के लिए हिंदू मंदिरों की खुदाई भी की जाएगी? यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा, और इसका परिणाम केवल समाज में अराजकता और विभाजन होगा।

संभल की घटना: घृणा की राजनीति की पराकाष्ठा

संभल में पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई, जिसमें पांच मुस्लिम युवाओं की जान गई, स्पष्ट रूप से घृणा की राजनीति का नतीजा थी। पुलिस का दावा था कि उन्होंने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए रबर की गोलियां चलाईं। लेकिन इन गोलियों में नफरत का बारूद भरा हुआ था, जिसने निर्दोष युवाओं को मौत के घाट उतार दिया।

यह घटना भारतीय समाज के लिए एक चेतावनी है। जो राजनीति आज मुसलमानों को निशाना बना रही है, वही कल अन्य अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्गों को निशाना बना सकती है।

घृणा का असली लक्ष्य: हिंदू समाज

इस राजनीति का असली निशाना केवल मुसलमान नहीं, बल्कि हिंदू समाज है। ‘मुसलमानों से खतरा’ का डर पैदा कर हिंदू समुदाय को एक झूठे नैरेटिव के पीछे खड़ा किया जा रहा है। लेकिन इसका असली मकसद सत्ता बनाए रखना और आर्थिक-सामाजिक मुद्दों से ध्यान भटकाना है।

मुसलमानों के खिलाफ फैलाए जा रहे झूठ और हिंसा से देश की सामाजिक एकता नष्ट हो रही है। यह न केवल भारत के लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है, बल्कि हिंदू समाज को भी भीतर से खोखला कर रहा है।

रास्ता क्या है?

  1. कानून और संविधान का सम्मान:
    सरकार और न्यायपालिका को उपासना स्थल अधिनियम का सख्ती से पालन करना चाहिए। किसी भी धार्मिक स्थल की स्थिति में बदलाव का प्रयास न केवल अवैध है, बल्कि यह समाज में वैमनस्य बढ़ाने वाला भी है।
  2. सामाजिक जागरूकता:
    हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों को समझना होगा कि उनका भविष्य एक दूसरे के साथ शांति और सहअस्तित्व में है। इतिहास के झगड़ों को दोबारा जीवित करने से किसी को फायदा नहीं होगा।
  3. राजनीतिक जवाबदेही:
    विभाजनकारी राजनीति करने वाले नेताओं को चुनावों में हराकर यह संदेश देना होगा कि भारत की जनता नफरत की राजनीति को नकार चुकी है।
  4. मीडिया की भूमिका:
    मीडिया को जिम्मेदारी से काम करना होगा। वर्तमान में कॉरपोरेट मीडिया का बड़ा हिस्सा नफरत के एजेंडे को बढ़ावा दे रहा है। इसे रोकने के लिए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया की आवश्यकता है।

क्या भारत संभलेगा?

संभल की घटना भारतीय लोकतंत्र और समाज के लिए एक चेतावनी है। यह घृणा की राजनीति और अराजकता के उस खतरनाक रास्ते की झलक है, जिस पर देश को धकेला जा रहा है। अगर समय रहते जनता ने सचेत होकर इस विभाजनकारी राजनीति को नकारा नहीं, तो भारत की विविधता और एकता का सपना हमेशा के लिए बिखर जाएगा।

आइए, इस खूनी राजनीति को नकारें और एक ऐसा भारत बनाएं जो नफरत की जगह प्रेम और सहअस्तित्व का प्रतीक हो। यह समय अतीत में खोने का नहीं, बल्कि भविष्य को बचाने का है।

खासदार टाइम्स

खासदार टाईम्स {निडर, निष्पक्ष, प्रखर समाचार, खासदार की तलवार, अन्याय पे प्रहार!} हिंदी/मराठी न्यूज पेपर, डिजिटल न्यूज पोर्टल/चैनल) RNI No. MAHBIL/2011/37356 संपादक - खान एजाज़ अहमद, कार्यकारी संपादक – सय्यद फेरोज़ आशिक

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