पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आरएफ नरीमन की तीखी आलोचना: बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बताया ‘न्याय का मजाक’
नई दिल्ली: भारत के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आरएफ नरीमन ने बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद के 2019 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कड़ी असहमति जताई है। उन्होंने इसे भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्षता (सेकुलरिज्म) के सिद्धांतों के खिलाफ करार देते हुए न्यायपालिका की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए। यह टिप्पणी उन्होंने “सेकुलरिज्म और भारतीय संविधान” विषय पर आयोजित प्रथम जस्टिस एएम अहमदी स्मृति व्याख्यान के दौरान की।
फैसले को ‘न्याय का मजाक’ बताया
जस्टिस नरीमन ने कहा कि 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने विवादित स्थल पर राम मंदिर निर्माण की अनुमति देकर एक ऐसा फैसला सुनाया जो सेकुलरिज्म के मूल सिद्धांतों को नजरअंदाज करता है। उन्होंने कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने खुद स्वीकार किया कि बाबरी मस्जिद के नीचे कोई राम मंदिर नहीं था। फिर भी, मस्जिद का विध्वंस करने वालों को फायदा पहुंचाया गया। यह न्याय का मजाक है।”
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कोर्ट ने माना था कि 1857 से लेकर 1949 तक विवादित स्थल पर मुस्लिम समुदाय नमाज अदा करता रहा। इसके बावजूद, मस्जिद के विध्वंस और कानून तोड़ने वालों के पक्ष में विवादित स्थल सौंप दिया गया।
लिब्रहान आयोग और राष्ट्रपति संदर्भ पर टिप्पणी
जस्टिस नरीमन ने बाबरी विध्वंस की जांच के लिए गठित लिब्रहान आयोग की देरी को भी निशाने पर लिया। उन्होंने इसे “17 सालों की निष्क्रियता” करार दिया और 2009 में प्रस्तुत रिपोर्ट को “अत्यधिक विलंबित और अप्रभावी” बताया। इसके साथ ही, उन्होंने 1993 में अयोध्या अधिग्रहण क्षेत्र अधिनियम और राष्ट्रपति संदर्भ को “भ्रामक और शरारतपूर्ण” कहा।
‘सेकुलरिज्म के साथ न्याय करने में असफलता’
जस्टिस नरीमन ने कहा कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस और इससे जुड़े साजिश मामलों में आरोपियों के बरी होने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता और संविधान की मूल भावना पर सवाल उठते हैं। उन्होंने टिप्पणी की, “न्यायपालिका की जिम्मेदारी है कि वह सेकुलरिज्म को संरक्षित रखे। लेकिन इस मामले में न्यायपालिका इसमें असफल रही।”
उन्होंने इस बात पर भी चिंता जताई कि “बाबरी विध्वंस साजिश मामले के न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद उप-लोकायुक्त नियुक्त करना न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल खड़े करता है।”
न्यायपालिका की भूमिका पर नई बहस
जस्टिस नरीमन की यह टिप्पणियां देश में न्यायपालिका की स्वतंत्रता, संविधान की धर्मनिरपेक्षता और न्यायिक निष्पक्षता पर एक नई बहस को जन्म दे रही हैं। उनकी टिप्पणियों से यह स्पष्ट होता है कि अयोध्या विवाद का समाधान जिस तरह से किया गया, वह न केवल संवैधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध है, बल्कि इससे न्यायपालिका की निष्पक्षता और लोकतंत्र पर भी गहरा असर पड़ा है।
क्या यह न्याय है?
जस्टिस नरीमन ने कहा, “फैसले में हर बार कानून का उल्लंघन हिंदू पक्ष द्वारा हुआ, लेकिन इसका परिणाम मुस्लिम समुदाय के खिलाफ गया। मस्जिद का पुनर्निर्माण नहीं किया गया, और दोषियों को दंडित करने के बजाय उन्हें लाभ पहुंचाया गया। यह न्याय और सेकुलरिज्म दोनों का अपमान है।”
उनकी आलोचना इस बात पर केंद्रित थी कि न्यायपालिका को अपने फैसलों में संवैधानिक मूल्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए थी। यह देखना दिलचस्प होगा कि उनकी इन टिप्पणियों पर किस प्रकार की प्रतिक्रिया आती है और यह बहस भारतीय न्यायपालिका और राजनीति को कैसे प्रभावित करती है।