बीजेपी की बढ़ती राजनीतिक पकड़: 14 राज्यों में सरकार, लेकिन दलित नेतृत्व का अभाव क्यों?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने देश के 14 राज्यों में सत्ता कायम कर ली है। हाल ही में महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही बीजेपी ने राजनीतिक मजबूती का एक और उदाहरण पेश किया। लेकिन इस सफलता के बीच एक सवाल गहराता जा रहा है: आखिर क्यों 14 राज्यों में से किसी में भी दलित चेहरा मुख्यमंत्री नहीं है?
बीजेपी की जातीय समीकरण साधने की रणनीति
बीजेपी ने हमेशा जातीय संतुलन और सामाजिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए अपनी रणनीति बनाई है। पार्टी ने इस बार ब्राह्मण, ठाकुर, ओबीसी और आदिवासी समुदायों के नेताओं को मुख्यमंत्री के रूप में प्राथमिकता दी है। इससे बीजेपी ने हर राज्य में अपने सामाजिक आधार को मजबूत किया है।
ओबीसी समुदाय का बढ़ता प्रभुत्व
बीजेपी ने ओबीसी नेताओं को प्रमुखता देकर इस समुदाय में अपनी पैठ और गहरी करने का प्रयास किया है।
मध्य प्रदेश: मोहन यादव, उज्जैन से विधायक, राज्य के 19वें मुख्यमंत्री बने।
त्रिपुरा: माणिक साहा 2022 से मुख्यमंत्री हैं।
हरियाणा: नायब सिंह सैनी ने मार्च 2024 में सीएम पद संभाला।
गुजरात: भूपेंद्र पटेल 2022 से राज्य के 18वें मुख्यमंत्री हैं।
ब्राह्मण नेतृत्व की भूमिका
बीजेपी ने ब्राह्मण नेताओं को भी विशेष स्थान दिया है।
महाराष्ट्र: देवेंद्र फडणवीस ने तीसरी बार सीएम पद की शपथ ली।
असम: हिमंत बिस्वा सरमा 2021 से मुख्यमंत्री हैं।
राजस्थान: भजन लाल शर्मा दिसंबर 2023 से सीएम हैं।
ठाकुर नेताओं का प्रभुत्व
ठाकुर समुदाय के नेता बीजेपी की राजनीति में मजबूत स्तंभ रहे हैं।
उत्तर प्रदेश: योगी आदित्यनाथ तीसरी बार मुख्यमंत्री बने।
उत्तराखंड: पुष्कर सिंह धामी ठाकुर समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
मणिपुर: एन. बीरेन सिंह 2002 से राजनीति में सक्रिय हैं।
गोवा: प्रमोद सावंत मराठा क्षत्रिय जाति से हैं।
आदिवासी और बौद्ध नेताओं को भी मिली प्राथमिकता
छत्तीसगढ़: विष्णु देव साय राज्य के पहले आदिवासी मुख्यमंत्री बने।
ओडिशा: मोहन चरण माझी आदिवासी समुदाय से आते हैं।
अरुणाचल प्रदेश: पेमा खांडू बौद्ध समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
दलित नेतृत्व का अभाव: क्यों बना यह सवाल बड़ा?
बीजेपी ने दलित समुदाय से किसी नेता को मुख्यमंत्री बनाने से परहेज क्यों किया, यह एक बड़ी चर्चा का विषय है।
- राजनीतिक समीकरण: बीजेपी का मानना है कि दलित समुदाय पर पकड़ बनाए रखने के लिए उन्हें अन्य तरीकों से साधा जा सकता है, जैसे केंद्रीय योजनाओं और आरक्षण का लाभ देकर।
- वोट बैंक की गणना: पार्टी का फोकस ऐसे समुदायों पर है जो बड़ी संख्या में मतदाता हैं और चुनावी समीकरण को बदल सकते हैं।
- प्रतिद्वंद्वी दलों की चुनौती: दलित नेतृत्व को आगे बढ़ाने पर बीजेपी को विपक्ष, खासकर कांग्रेस और बसपा से कड़ी चुनौती मिल सकती है।
राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव
दलित चेहरा न होने से बीजेपी के सामने कई राजनीतिक और सामाजिक चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं।
विपक्ष का आक्रामक रुख: कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस मुद्दे को अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ बड़ा हथियार बना सकते हैं।
दलित समुदाय की नाराजगी: यदि यह समुदाय इसे अपनी उपेक्षा के रूप में देखता है, तो यह बीजेपी के लिए नुकसानदायक हो सकता है।
2029 के लोकसभा चुनाव पर असर: आगामी चुनावों में यह मुद्दा बीजेपी के लिए एक कमजोर पक्ष साबित हो सकता है।
विधानसभा सीटों की स्थिति
उत्तर प्रदेश: 403 सीटें
महाराष्ट्र: 288 सीटें
मध्य प्रदेश: 230 सीटें
राजस्थान: 200 सीटें
गुजरात: 182 सीटें
ओडिशा: 147 सीटें
हरियाणा: 90 सीटें
उत्तराखंड: 70 सीटें
मणिपुर: 60 सीटें
भविष्य की चुनौतियां और संभावनाएं
बीजेपी की वर्तमान रणनीति ने जातीय संतुलन बनाए रखा है, लेकिन दलित नेतृत्व की कमी एक दीर्घकालिक चुनौती बन सकती है।
- नई रणनीति की जरूरत: पार्टी को दलित समुदाय को संतुष्ट करने के लिए अधिक प्रभावी योजना बनानी होगी।
- सशक्तिकरण पर जोर: दलित नेतृत्व को आगे बढ़ाने और इस समुदाय को अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने की दिशा में कदम उठाने होंगे।
- समावेशी राजनीति: सभी समुदायों को समान महत्व देकर बीजेपी अपनी पकड़ को और मजबूत कर सकती है।
बीजेपी ने 14 राज्यों में अपनी सरकार बनाकर राजनीतिक ताकत दिखाई है। हालांकि, दलित मुख्यमंत्री का अभाव एक बड़ा सवाल बनकर उभरा है। यह मुद्दा आगामी चुनावों में पार्टी के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है। पार्टी को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा ताकि वह अपनी समावेशी छवि को बनाए रख सके और समाज के हर वर्ग का विश्वास जीत सके।