Breaking NewsDelhiEditorialPolitics

‘आप’ का हिंदुत्व प्रेम और उसकी चुनावी हार की दास्तान

सय्यद फेरोज़ आशिक की कलम से

दिल्ली चुनावों में आम आदमी पार्टी (AAP) की करारी हार किसी एक घटना का परिणाम नहीं, बल्कि एक लंबी राजनीतिक प्रक्रिया का नतीजा है। अरविंद केजरीवाल ने जिस राजनीति को गढ़ने की कोशिश की, वह अंततः भारतीय जनता पार्टी (BJP) की विचारधारा की ही छाया बनकर रह गई। नफरत की राजनीति का आरोप बीजेपी पर लगता रहा है, लेकिन यह भी एक सच है कि चुनावी फायदे के लिए आम आदमी पार्टी ने भी कई मौकों पर उसी राजनीति को अपनाने में कोई झिझक नहीं दिखाई।

बांग्लादेशी-रोहिंग्या बच्चों पर कठोरता और शिक्षा से वंचित करने का आदेश

दिल्ली सरकार ने चुनाव से ठीक पहले स्कूलों को आदेश दिया कि बांग्लादेशी और रोहिंग्या बच्चों को दाखिला न दिया जाए और उनके दस्तावेजों की सख्ती से जांच की जाए। संविधान की मूल आत्मा ‘हर नागरिक को सम्मान से जीने का अधिकार’ कहती है, लेकिन ‘आप’ सरकार ने यह आदेश जारी कर दिया। जब भाजपा रोहिंग्या और बांग्लादेशियों को ‘घुसपैठिया’ कहकर राजनीति कर रही थी, तब ‘आप’ ने भी वही हथकंडा अपनाया और भाजपा पर यह आरोप मढ़ दिया कि वह रोहिंग्या शरणार्थियों को दिल्ली में बसा रही है। यह राजनीति सिर्फ एक पार्टी को हराने के लिए नहीं थी, बल्कि उसने भाजपा की हिंदुत्ववादी भाषा और रणनीति को भी वैधता दी।

जहांगीरपुरी हिंसा और बुलडोज़र पर चुप्पी

जब रामनवमी के दौरान जहांगीरपुरी में हिंसा हुई, तब आम आदमी पार्टी ने बुलडोजर कार्रवाई का कोई विरोध नहीं किया। इसके बजाय उसने भाजपा पर फिर वही आरोप लगाया कि वह रोहिंग्या और बांग्लादेशियों को बसा रही है और वही दंगे करवा रही है। भाजपा ‘बाहरी’ और ‘घुसपैठिया’ कहकर मुसलमानों को निशाना बनाती रही है और ‘आप’ ने भी यही किया, जिससे भाजपा की राजनीति और मजबूत हुई।

तबलीगी जमात और कोविड का सांप्रदायिकरण

कोविड महामारी के दौरान भी आम आदमी पार्टी ने अपनी राजनीति को भाजपा की नफरत की भाषा में ढालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। तबलीगी जमात पर ‘आप’ के मंत्रियों ने लगातार बयान दिए कि उनके जलसे की वजह से दिल्ली और देश में कोरोना फैला। यह सरासर झूठ था, लेकिन इससे मुसलमानों के खिलाफ पूरे देश में हिंसा भड़की और उनका सामाजिक बहिष्कार हुआ। यह वही मुसलमान थे, जो ‘आप’ को वोट देते थे, लेकिन ‘आप’ ने उन्हें कटघरे में खड़ा करने में कोई कोताही नहीं बरती।

रिंकू शर्मा हत्या: ‘आप’ का सांप्रदायिक राजनीति में कदम

रिंकू शर्मा नामक युवक की हत्या को भी ‘आप’ ने सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की। मनीष सिसोदिया ने बयान दिया कि उसे ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने की वजह से मारा गया और दिल्ली पुलिस को दोषी ठहराया। यह वही रणनीति थी जो भाजपा अपनाती रही है—धार्मिक भावनाओं को भड़काना और चुनावी फायदा उठाना।

शाहीन बाग आंदोलन पर ‘समझदार’ खामोशी

नागरिकता कानून (CAA) के खिलाफ हुए शाहीन बाग आंदोलन पर ‘आप’ की चुप्पी भी याद रखी जानी चाहिए। अरविंद केजरीवाल ने कहा कि शाहीन बाग के लिए भाजपा जिम्मेदार है और अगर उनके पास पुलिस होती, तो तीन दिन में सड़क खाली करा देते। एक लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शन को खत्म करने की यह धमकी सीधे भाजपा के सुर में सुर मिलाने जैसा था।

राम मंदिर पर ‘आप’ का नया हिंदुत्ववादी अवतार

अयोध्या में बनी राम मंदिर यात्रा के लिए विशेष व्यवस्था करके ‘आप’ ने यह साबित कर दिया कि वह भाजपा से अलग नहीं, बल्कि उसकी हिंदुत्ववादी राजनीति की ही एक और शाखा है। अरविंद केजरीवाल खुद अयोध्या जाकर रामलला के दर्शन कर आए। दिल्ली में ‘विश्व हिंदू परिषद’ के त्रिशूल वितरण कार्यक्रम में ‘आप’ के नेता भी देखे गए।

‘आप’ ने भाजपा के लिए हिंदुत्ववादी वोटर तैयार किए!

आम आदमी पार्टी को हमेशा विकास की राजनीति करने वाली पार्टी के रूप में देखा जाता रहा, लेकिन उसने पिछले 10 सालों में हिंदुत्ववादी मतदाताओं को ही तैयार किया।

  • सनातन सेवा समिति का गठन
  • पुजारियों के वेतन की घोषणा
  • सुंदरकांड का साप्ताहिक पाठ
  • स्कूलों में ‘कट्टर देशभक्त पाठ्यक्रम’

ये सब कदम एक वैकल्पिक राजनीति गढ़ने के बजाय भाजपा के हिंदुत्ववादी विमर्श को और गहराने का ही काम कर रहे थे। ऐसे में जब भाजपा ने ऐलान किया कि वह ‘आप’ सरकार की सारी योजनाओं को जारी रखेगी, तो ‘आप’ के हिंदुत्ववादी मतदाताओं को भाजपा को वोट देने में कोई दुविधा नहीं हुई।

‘आप’ का अंत: नैतिकता से समझौता ही पतन की जड़

आम आदमी पार्टी का जन्म एक वैकल्पिक राजनीति के दावे के साथ हुआ था, लेकिन इसने खुद को एक ऐसी राजनीतिक ताकत में बदल लिया, जिसके लिए सिद्धांत और नैतिकता कोई मायने नहीं रखते। सत्ता बचाने के लिए ‘आप’ ने वही रास्ता अपनाया, जिस पर भाजपा पहले से चल रही थी।

नतीजा?
जो वोटर हिंदुत्ववादी थे, वे भाजपा के पास लौट गए।
जो वोटर धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखते थे, वे ‘आप’ से निराश हो गए।
जो मुसलमान और अल्पसंख्यक ‘आप’ के समर्थक थे, उन्होंने देखा कि पार्टी उनके अधिकारों और सुरक्षा की रक्षा करने के बजाय भाजपा के साथ सुर मिलाने में लगी थी।

निष्कर्ष

आम आदमी पार्टी को अपनी हार का असली कारण समझना होगा। केवल भाजपा पर ईवीएम का आरोप लगाने से कुछ हासिल नहीं होगा। उसने भाजपा की राजनीति को ही अपनाकर अपनी पहचान खो दी। अगर पार्टी को बचना है, तो उसे नफरत और सांप्रदायिक राजनीति से पूरी तरह किनारा करना होगा। वरना दिल्ली में उसका वही हाल होगा, जो कई अन्य क्षेत्रीय पार्टियों का हो चुका है—मिट्टी में मिल जाना।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
hi Hindi