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औरंगज़ेब और छावा: फिल्में मनोरंजन का माध्यम या सांप्रदायिकता का हथियार?

लेखक: सय्यद फेरोज़ आशिक

आज के दौर में इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करने और उसे धार्मिक आधार पर बांटने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। सिनेमा, मीडिया और राजनीतिक मंचों का उपयोग कर ऐतिहासिक तथ्यों को विकृत करने का प्रयास किया जा रहा है, जिससे समाज में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिले। हाल ही में “छावा” नामक फिल्म इसी एजेंडे का हिस्सा बनती नजर आ रही है। इस फिल्म के जरिए इतिहास को एक खास नजरिए से दिखाने की कोशिश की जा रही है, जिससे एक वर्ग विशेष के प्रति नफरत को हवा मिले।

औरंगज़ेब की कब्र पर राजनीति

फिल्म के प्रचार के साथ ही मुगल शासक औरंगज़ेब की कब्र को तोड़ने की मांग भी उठने लगी है। यह कब्र महाराष्ट्र के औरंगाबाद (खुलताबाद) में स्थित है, जहां औरंगज़ेब को एक साधारण व्यक्ति की तरह दफनाया गया था। यह उनकी वसीयत का ही हिस्सा था कि उनकी कोई भव्य दरगाह न बनाई जाए। बावजूद इसके, इसे लेकर सांप्रदायिक तनाव भड़काने की कोशिश की जा रही है।

भाजपा विधायक राजा सिंह, जो पहले भी अपने भड़काऊ बयानों के लिए चर्चा में रहे हैं, ने इस मांग को दोहराकर आग में घी डालने का काम किया है। उनका उद्देश्य इतिहास की सच्चाई को सामने लाना नहीं, बल्कि इसे तोड़-मरोड़कर सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना प्रतीत होता है।

सिनेमा: कला या सांप्रदायिकता का हथियार?

सिनेमा समाज का आईना होता है, लेकिन जब इसे एक खास एजेंडे के तहत प्रस्तुत किया जाने लगे, तो यह समाज को बांटने का माध्यम बन जाता है। बीते कुछ वर्षों में कई फिल्में ऐसी आई हैं, जिनका उद्देश्य मनोरंजन से ज्यादा एक खास नैरेटिव को स्थापित करना रहा है।

“छावा” फिल्म में भी इतिहास को एकतरफा तरीके से दिखाने का प्रयास किया गया है। यह कोई नई बात नहीं है। इससे पहले भी कई फिल्मों और वेब सीरीज के माध्यम से मुगलों, विशेषकर औरंगज़ेब को सिर्फ एक क्रूर शासक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

संभाजी महाराज की हत्या: सच्चाई या प्रोपेगेंडा?

संभाजी महाराज की हत्या को लेकर भी तरह-तरह की कहानियां गढ़ी जा रही हैं। यह प्रचारित किया जा रहा है कि औरंगज़ेब ने उन्हें मजहब बदलने के लिए अमानवीय यातनाएं दीं और अंततः उनकी हत्या कर दी। लेकिन कई इतिहासकारों का मानना है कि संभाजी महाराज की हत्या का असली कारण राजनीतिक षड्यंत्र था, न कि धार्मिक मतभेद। कुछ इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि इस घटना में ब्राह्मणों की भूमिका रही थी, लेकिन इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

ध्रुवीकरण की राजनीति कब तक?

इतिहास को गलत तरीके से पेश करके और फिल्मों के माध्यम से जनता की भावनाओं को भड़काकर समाज में नफरत फैलाना एक सुनियोजित साजिश का हिस्सा लगता है। हर बार एक नया मुद्दा उठाकर, कभी किसी शासक को विलेन बनाकर, तो कभी किसी ऐतिहासिक घटना को तोड़-मरोड़कर पेश कर, सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की कोशिश की जाती है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम इतिहास को तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर समझें, न कि राजनीतिक और सांप्रदायिक एजेंडे के आधार पर। फिल्में समाज को जोड़ने का काम करें, न कि उन्हें बांटने का। और सबसे जरूरी बात—राजनीति के लिए धर्म और इतिहास का इस्तेमाल बंद हो, ताकि आने वाली पीढ़ियां एक सही और निष्पक्ष इतिहास को जान सकें।

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