“1920 से पहले देश में कोई हिंदू नहीं था, और ना ही ‘हिंदू’ शब्द का प्रचलन था” क्रांति कुमार के सोशल मीडिया पोस्ट से छिड़ी नई बहस”
हाल ही में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X (पूर्व में ट्विटर) पर क्रांति कुमार द्वारा किए गए एक पोस्ट ने जाति, धर्म, और सामाजिक इतिहास पर एक नई बहस को जन्म दिया है। अपने पोस्ट में कुमार ने एक विवादास्पद दावा किया कि 1920 से पहले भारत में ‘हिंदू’ शब्द का कोई प्रचलन नहीं था और लोगों की पहचान उनके धर्म से नहीं, बल्कि उनकी जाति से होती थी। इस दावे ने इतिहास और वर्तमान सामाजिक संरचना के गहरे संबंधों पर व्यापक चर्चा छेड़ दी है।
जाति-आधारित पहचान की प्राचीन प्रथा
क्रांति कुमार ने अपने पोस्ट में इस बात पर जोर दिया कि 1920 से पहले समाज में जाति-आधारित पहचान अधिक प्रमुख थी। उन्होंने कहा, “ग्रामीण इलाकों में आज भी लोग एक-दूसरे की पहचान उनकी जाति से करते हैं। धर्म से पहले जाति की पहचान समाज में गहराई तक बसी हुई थी।” यह बयान भारतीय ग्रामीण समाज की जाति व्यवस्था की जड़ों को उजागर करता है, जो सदियों से कायम है और आज भी कई हिस्सों में प्रभावी है।
धर्मांतरण और सामाजिक संरचना पर विचार
कुमार ने अपने पोस्ट में मुगल और ब्रिटिश काल का उल्लेख करते हुए यह दावा किया कि जातिवाद से बचने के लिए कई निम्न जातियों के लोगों ने मुसलमान या ईसाई धर्म अपना लिया था। उन्होंने यह भी कहा कि लाखों शूद्रों और अछूतों ने सिख धर्म को अपनाया, ताकि वे जातिगत भेदभाव से मुक्त हो सकें। कुमार का तर्क है कि 1920 से पहले धर्मांतरण को सवर्ण समाज ने किसी गंभीर समस्या के रूप में नहीं देखा, लेकिन इसके बाद राजनीतिक समीकरण बदलने लगे।
1920 के बाद का दौर: राजनीतिक समीकरणों का उदय
1920 के बाद भारतीय राजनीति में जाति और धर्म का प्रतिनिधित्व एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया। कुमार ने लिखा कि जब राजनीति में प्रतिनिधित्व का सवाल खड़ा हुआ, तो यह बहस उठी कि कौन किस जाति, धर्म या वर्ग का प्रतिनिधि बनेगा। उनके अनुसार, इसी समय से भारतीय समाज में धर्म और जाति के आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण तेज हुआ। इस दौर में अस्पृश्य (अछूत) समाज की राजनीतिक स्थिति भी केंद्र में आ गई, और सवर्ण समाज ने इसे अपने हितों के खिलाफ एक चुनौती के रूप में देखा।
अस्पृश्य समाज और षड़यंत्र का आरोप
कुमार ने अपने पोस्ट में अछूतों की स्थिति पर गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश शासन के दौरान अस्पृश्य समाज को OUTCASTE यानी “बाहरी समुदाय” माना जाता था, और ये हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं थे। कुमार ने ब्राह्मण सुधारकों पर आरोप लगाया कि उन्होंने एक षड़यंत्र के तहत अछूतों को हिंदू धर्म में शामिल करना शुरू किया। उनके अनुसार, सुधारकों ने अस्पृश्यों को हिंदू धर्म में स्थान दिया, लेकिन समाज में उन्हें द्वितीय श्रेणी के नागरिक जैसा व्यवहार मिला।
ब्राह्मण सुधारकों पर राजनीतिक खेल का आरोप
कुमार के अनुसार, ब्राह्मण सुधारकों को डर था कि अगर ब्रिटिश शासन ने अछूतों को एक अलग समुदाय मान लिया, तो अगड़ी जातियां अल्पसंख्यक हो जाएंगी और मुसलमान सत्ता पर हावी हो सकते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि अस्पृश्यों को हिंदू धर्म में शामिल करके ब्राह्मणों ने राजनीति में अपनी स्थिति को मजबूत किया। हालाँकि, इस प्रक्रिया में अस्पृश्य समाज को बराबरी का दर्जा नहीं मिला और वे सामाजिक रूप से हाशिए पर ही रहे।
सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया और बहस
कुमार की इस पोस्ट के बाद सोशल मीडिया पर जाति और धर्म को लेकर एक नई बहस छिड़ गई है। कई लोगों ने उनके विचारों का समर्थन किया, जबकि कुछ ने इसे ऐतिहासिक रूप से गलत बताया। उनके आलोचकों का कहना है कि इतिहास को इस तरह से तोड़-मरोड़ कर पेश करना सही नहीं है। वहीं, उनके समर्थक जातिगत भेदभाव और धर्मांतरण के मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करने के लिए उनकी पोस्ट की सराहना कर रहे हैं।
जाति, धर्म और राजनीति: आज भी प्रासंगिक
क्रांति कुमार की इस पोस्ट ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि भारत में जाति, धर्म और राजनीति के बीच का जटिल समीकरण आज भी कितना गहरा है। चाहे उनके विचारों को ऐतिहासिक रूप से सही माना जाए या नहीं, यह स्पष्ट है कि जाति और धर्म की बहस आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी 1920 के बाद थी। इस पोस्ट ने भारत के सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने पर एक नई रोशनी डाली है, और यह देखा जाना बाकी है कि यह बहस किस दिशा में आगे बढ़ती है।