डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर को ‘गिरगिट’ बताने वाले सावरकर के बयान से बवाल

नई दिल्ली: भारतीय इतिहास में दो प्रमुख व्यक्तित्वों – वीर सावरकर और डॉ. बी.आर. अंबेडकर के बीच विचारधारात्मक मतभेद हमेशा चर्चा का विषय रहे हैं। हाल ही में सावरकर का एक पुराना बयान, जिसमें उन्होंने अंबेडकर और बौद्ध धर्म की आलोचना की थी, फिर से सामने आया है, जिससे नया विवाद खड़ा हो गया है।
सावरकर और अंबेडकर: विचारधाराओं का संघर्ष
वीर सावरकर हिंदुत्व की विचारधारा के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने हिंदू महासभा के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनका सपना एक हिंदू राष्ट्र का था, जहां हिंदू संस्कृति और मूल्यों का वर्चस्व हो।
दूसरी ओर, डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय संविधान के निर्माता और सामाजिक न्याय के पैरोकार थे। उन्होंने दलितों और वंचित समुदायों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और 1956 में बौद्ध धर्म ग्रहण किया, जिसे उन्होंने जाति-आधारित भेदभाव से मुक्ति का मार्ग बताया।
सावरकर का विवादित बयान
सावरकर के जिस बयान पर विवाद हो रहा है, वह कुछ इस प्रकार है:
“जहां बुद्ध स्वयं हार गए वहां अंबेडकर किस झाड़ की पत्ती है.. आंबेडकर गिरगिट है.. धर्म बदलने का दुष्कर्म कर रहा है..”
इस टिप्पणी को बौद्ध धर्म और अंबेडकर के प्रति गहरे पूर्वाग्रह के रूप में देखा जा रहा है। इस बयान की तीखी आलोचना हो रही है, क्योंकि यह न केवल अंबेडकर के योगदान को कम करता है, बल्कि सामाजिक समता के उनके विचारों पर भी हमला करता है।
अंबेडकर का बौद्ध धर्म अपनाना: सामाजिक क्रांति का प्रतीक
अंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने को केवल धार्मिक परिवर्तन के रूप में नहीं देखा गया, बल्कि यह जाति व्यवस्था के खिलाफ एक राजनीतिक और सामाजिक क्रांति थी। उन्होंने दलितों को एक नई पहचान और सम्मान देने के लिए यह कदम उठाया।
समकालीन प्रतिक्रियाएं और राजनीतिक बहस
सावरकर के बयान के दोबारा सामने आने से समकालीन भारत में विचारधाराओं की प्रासंगिकता पर बहस छिड़ गई है।
- डॉ. विलास खरात, एक प्रमुख दलित विचारक, ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा, “धिक्कार है ऐसे सावरकर को।”
- कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और बौद्ध संगठनों ने सावरकर की टिप्पणी की निंदा की और इसे संविधान और भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों के खिलाफ बताया।
क्या कहता है इतिहास?
अंबेडकर और सावरकर के बीच वैचारिक मतभेद लंबे समय से चले आ रहे थे। जहां सावरकर हिंदू समाज की एकता की बात करते थे, वहीं अंबेडकर ने जातिविहीन और समतामूलक समाज की वकालत की।
आगे क्या?
यह विवाद यह दर्शाता है कि भारत में जाति, धर्म और सामाजिक न्याय पर बहस अभी भी प्रासंगिक है। सावरकर और अंबेडकर की विचारधाराएं आज भी समाज और राजनीति को प्रभावित कर रही हैं।
निष्कर्ष
सावरकर और अंबेडकर का विचारधारात्मक टकराव सिर्फ ऐतिहासिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह आधुनिक भारत की सामाजिक और राजनीतिक बहस का एक अहम हिस्सा बना हुआ है। यह बहस आगे भी जाति, धर्म और पहचान के मुद्दों को प्रभावित करती रहेगी।