महाराष्ट्र। 1 जनवरी 2025 – भीमा कोरेगांव की ऐतिहासिक लड़ाई की याद में मनाए जाने वाले शौर्य दिवस को लेकर इस साल एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। ट्विटर पर कुछ समूहों द्वारा इस दिन को “गद्दार दिवस” के रूप में प्रचारित करने की कोशिश ने सोशल मीडिया पर तीखी बहस छेड़ दी है। इतिहास की इस घटना का महत्व और इसके राजनीतिक-सामाजिक प्रभावों को लेकर जनता, विशेषज्ञों और राजनीतिक नेताओं ने विभिन्न मत प्रकट किए हैं।
शौर्य दिवस का ऐतिहासिक महत्व
1818 में हुई भीमा कोरेगांव की लड़ाई ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेना के बीच लड़ी गई थी। इसमें दलित सैनिकों ने ब्रिटिश सेना के साथ मिलकर पेशवा की सेना को पराजित किया था। यह लड़ाई दलित समुदाय के लिए सामाजिक और राजनीतिक समानता का प्रतीक बन गई।
हर साल 1 जनवरी को, हजारों लोग इस स्थल पर इकट्ठा होकर इस वीरता को श्रद्धांजलि देते हैं। इसे शौर्य दिवस के रूप में मनाना ऐतिहासिक अन्याय के खिलाफ संघर्ष और दलित सशक्तिकरण का प्रतीक माना जाता है।
ट्विटर पर “गद्दार दिवस” का ट्रेंड
हाल ही में, ट्विटर पर कुछ उपयोगकर्ताओं ने शौर्य दिवस को “गद्दार दिवस” के रूप में प्रचारित करने का प्रयास किया। उनका तर्क है कि यह लड़ाई ब्रिटिश सत्ता के समर्थन में लड़ी गई थी, जो भारतीय स्वतंत्रता के खिलाफ था।
इस पर तीखी प्रतिक्रिया आई है। कई लोगों ने इसे इतिहास को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने का प्रयास बताया। विशेषज्ञों का कहना है कि इस प्रकार की गतिविधियां समाज में भ्रम और विभाजन को बढ़ावा देती हैं।
सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया
इस विवाद को लेकर सोशल मीडिया पर जनता की राय विभाजित है:
- शौर्य दिवस समर्थक:
लोग इसे दलित वीरता और सामाजिक न्याय का प्रतीक मानते हैं। उनका कहना है कि इसे गद्दार दिवस के रूप में प्रस्तुत करना शहीदों का अपमान है। - विरोधी विचारधारा:
कुछ लोग इसे “ब्रिटिश समर्थन” के रूप में देखते हैं और गद्दार दिवस का समर्थन करते हैं। हालांकि, इन विचारों को व्यापक स्वीकृति नहीं मिल रही है।
राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया
महाराष्ट्र के प्रमुख राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने इस ट्रेंड की निंदा की है।
- एनसीपी और शिवसेना (यूबीटी) ने इसे समाज में फूट डालने वाला कदम बताया।
- बीजेपी नेताओं ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताया और ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने वालों पर कार्रवाई की मांग की।
- दलित संगठनों ने कहा कि यह साजिश उन ताकतों की है जो दलित एकता को कमजोर करना चाहते हैं।
इतिहासकारों का मत
इतिहासकारों का कहना है कि भीमा कोरेगांव की लड़ाई को ऐतिहासिक संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। यह लड़ाई केवल ब्रिटिश समर्थन की नहीं, बल्कि जातीय भेदभाव और दमन के खिलाफ विद्रोह की प्रतीक है।
सरकार और समाज की भूमिका
विशेषज्ञों का मानना है कि इस प्रकार की गलतफहमियों को रोकने के लिए शिक्षा और जागरूकता बढ़ाना आवश्यक है। सरकार और शिक्षा संस्थानों को मिलकर ऐतिहासिक तथ्यों को सही ढंग से प्रस्तुत करने पर जोर देना चाहिए।
भीमा कोरेगांव शौर्य दिवस का महत्व केवल एक ऐतिहासिक घटना तक सीमित नहीं है; यह सामाजिक न्याय, समानता और सशक्तिकरण का प्रतीक है। इसे गद्दार दिवस के रूप में प्रचारित करना न केवल गलत है, बल्कि यह समाज की एकता और अखंडता को भी नुकसान पहुंचाता है। ऐसी भ्रांतियों को रोकने और सही इतिहास को सामने लाने के लिए सभी पक्षों को मिलकर प्रयास करना चाहिए।
भीमा कोरेगांव शौर्य दिवस का इतिहास
भीमा कोरेगांव की लड़ाई (1 जनवरी 1818) भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण और प्रतीकात्मक घटना है। यह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव द्वितीय के बीच लड़ी गई थी। इस युद्ध में दलित समुदाय के महार जाति के सैनिकों ने अंग्रेजों के पक्ष में लड़ते हुए मराठा पेशवा की विशाल सेना को पराजित किया।
लड़ाई का पृष्ठभूमि
मराठा साम्राज्य में जाति आधारित भेदभाव गहराई से व्याप्त था। महार जाति के लोगों को शूद्र और “अस्पृश्य” माना जाता था। उन्हें सेना में शामिल होने से प्रतिबंधित किया गया था और सामाजिक रूप से उपेक्षित किया जाता था।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने महार सैनिकों को अपनी सेना में शामिल किया और उन्हें समानता और अधिकार दिए। यह महार समुदाय के लिए एक बड़ा अवसर था, क्योंकि इससे उन्हें अपने साहस और क्षमता को साबित करने का मौका मिला।
लड़ाई का विवरण
- स्थान: महाराष्ट्र के पुणे जिले के भीमा कोरेगांव गांव।
- तारीख: 1 जनवरी 1818।
- सैनिकों की संख्या:
- ब्रिटिश सेना: 800 सैनिक, जिसमें लगभग 500 महार जाति के सैनिक शामिल थे।
- पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेना: 20,000 से अधिक सैनिक।
- परिणाम:
ब्रिटिश सेना की छोटी टुकड़ी ने पेशवा की विशाल सेना को पराजित किया। यह उनकी अनुशासन, युद्ध कौशल और साहस का परिचय था।
शौर्य दिवस का महत्व
- जातीय समानता का प्रतीक:
महार सैनिकों की इस विजय ने भारतीय समाज में दलित समुदाय को गर्व और प्रेरणा का स्रोत प्रदान किया। - सामाजिक न्याय का संघर्ष:
यह लड़ाई जातीय भेदभाव और सामाजिक असमानता के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बन गई। - सांस्कृतिक पहचान:
दलित समुदाय इस दिन को अपने अधिकारों, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय की विजय के रूप में मनाता है।
वर्तमान में शौर्य दिवस
हर साल 1 जनवरी को, हजारों लोग भीमा कोरेगांव युद्ध स्मारक पर इकट्ठा होते हैं। यह स्मारक उन महार सैनिकों को समर्पित है जिन्होंने इस लड़ाई में अपने प्राण न्योछावर किए। यह दिन दलित सशक्तिकरण और उनके संघर्षों की याद दिलाता है।
विवाद:
हाल के वर्षों में शौर्य दिवस पर विवाद बढ़े हैं, और इसे समाज में विभाजन का कारण बनाने के प्रयास किए गए हैं। लेकिन इतिहासकार और दलित संगठनों का मानना है कि यह दिन अन्याय और भेदभाव के खिलाफ जीत का प्रतीक है।
भीमा कोरेगांव शौर्य दिवस केवल एक ऐतिहासिक लड़ाई की याद नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय, समानता और आत्म-सम्मान का उत्सव है।