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बिना मुस्लिम सांसद की संसद और वक़्फ़ का नया कानून: मुसलमानों का कल्याण या नियंत्रण?

Writer: Feroz Aashiq

भारतीय संसद में हाल ही में पारित वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक को लेकर जो बहस छिड़ी है, वह केवल एक विधायी प्रस्ताव की नहीं, बल्कि इस देश की अल्पसंख्यक नीति, लोकतांत्रिक नैतिकता और सत्ता की प्राथमिकताओं की परतें खोलती है।

एक ऐसी पार्टी, जिसके पास लोकसभा में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है, जिसने गुजरात जैसे राज्य में 1998 के बाद किसी मुस्लिम को टिकट तक नहीं दिया, वह किस नैतिक बल से यह दावा कर सकती है कि वह मुसलमानों का ‘कल्याण’ चाहती है? ऐसे समय में जब मणिपुर जल रहा है, जब देश टैरिफ युद्ध और आंतरिक चुनौतियों से जूझ रहा है, तब संसद की प्राथमिकता वक़्फ़ बोर्डों की निगरानी को और कड़ा करना कैसे हो सकती है?

इस बिल को जिस अंदाज़ में संसद में पेश और पारित किया गया, वह सत्ता की ओर से मुसलमानों को एक और संदेश है — कि तुम्हारे धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे पर भी अब पूरी तरह सरकारी निगरानी होगी। यह एक तरह से अनुच्छेद 26 और 25–28 जैसे संवैधानिक अधिकारों की भी अवहेलना है, जो हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं।

बीजेपी की मुस्लिम नीति अब एक सुस्पष्ट रणनीति बन चुकी है — जहाँ एक ओर ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा दिया जाता है, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम पहचान, परंपरा और संस्थाओं को कमजोर करने वाले कदम उठाए जाते हैं। तीन तलाक कानून हो, अनुच्छेद 370 का खात्मा हो या फिर नागरिकता संशोधन कानून (CAA) — हर पहलू में मुसलमानों को निशाना बनाना और हिंदुत्ववादी भावनाओं को संतुष्ट करना ही असली मकसद प्रतीत होता है।

वक़्फ़ बोर्डों को सरकारी अफसरों के अधीन करना न केवल धार्मिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर हमला है, बल्कि यह उस सामाजिक तानेबाने को भी नुकसान पहुँचाता है, जो विविधता में एकता की भारत की आत्मा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रयागराज में बुलडोजर कार्रवाई को लेकर अपनी “अंतरात्मा को झकझोरने वाला” करार दिया, जिससे सरकार की मंशा और कार्यशैली पर सवाल खड़े होते हैं।

वास्तव में, यह बिल उस व्यापक राजनीति का हिस्सा है जहाँ मुसलमानों को या तो हाशिए पर डाल दिया जाता है या फिर ‘दुश्मन’ की तरह पेश किया जाता है। उनकी धार्मिक प्रथाओं, खानपान, वेशभूषा और यहाँ तक कि इबादत तक पर भी सरकारी पहरे बैठाए जाते हैं। उत्तर प्रदेश में ईद के मौके पर मीट की दुकानों को बंद करना, निजी छतों पर नमाज को लेकर पाबंदियाँ लगाना – यह सब उस एकतरफा दखल का उदाहरण है जो केवल एक समुदाय के जीवन में हस्तक्षेप करने के लिए इस्तेमाल होता है।

वक़्फ़ संपत्ति का प्रबंधन एक गंभीर और संवेदनशील विषय है, जिसमें सुधार की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन सुधार के नाम पर समुदाय की राय के बगैर, संवाद के बगैर, और संवैधानिक सिद्धांतों को ताक पर रखकर कानून बनाना, लोकतंत्र की आत्मा के साथ विश्वासघात है।

आज जरूरत इस बात की है कि हम शासन की प्राथमिकताओं पर सवाल उठाएं। जब संसद में मणिपुर जैसे संवेदनशील राज्य की चर्चा देर रात करवाई जाती है और वक़्फ़ जैसे विषय पर 12 घंटे से ज्यादा बहस होती है, तो यह स्पष्ट है कि सरकार का फोकस शासन नहीं, बल्कि संदेश देने की राजनीति पर है।

भारत की लोकतांत्रिक यात्रा में यह दौर एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है। क्या हम एक समावेशी भारत की ओर बढ़ रहे हैं या ऐसे भारत की ओर जहाँ पहचान के आधार पर अधिकार तय किए जाएंगे? यह सवाल सिर्फ मुसलमानों का नहीं, हर उस नागरिक का है जो संविधान की शपथ पर विश्वास करता है।

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