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अरुण शौरी की किताब के पन्नों से: सावरकर ना तो वीर थे, ना स्वतंत्रता सेनानी थे, और ना ही उनके लिए गाय पूजनीय थी

पूर्व पत्रकार और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे अरुण शौरी की नई किताब ‘द न्यू आइकॉन: सावरकर एंड द फैक्ट्स’ भारतीय राजनीति में नई बहस छेड़ने वाली है। इस पुस्तक में विनायक दामोदर सावरकर के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान और उनके विचारों पर सवाल उठाए गए हैं।

सावरकर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं?

अरुण शौरी ने अपनी रिसर्च के आधार पर यह दावा किया है कि सावरकर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं थे। किताब में यह उल्लेख किया गया है कि सावरकर ने कई बार ब्रिटिश सरकार को दया याचिकाएं लिखीं और भारत में स्वतंत्रता संग्राम की बजाए हिंदुत्व की विचारधारा को आगे बढ़ाने पर जोर दिया

अरुण शौरी के अनुसार, लॉर्ड लिनलिथगो (भारत के वायसराय, 1936-1943) के साथ हुए पत्राचार से यह साफ होता है कि सावरकर ब्रिटिश सरकार से लगातार माफी मांग रहे थे। लिनलिथगो ने ब्रिटिश सरकार को लिखे पत्र में कहा था कि “सावरकर ने मुझसे भीख मांगी”

गाय को पूज्य नहीं, मात्र एक उपयोगी पशु मानते थे सावरकर

किताब में सावरकर की हिंदुत्व विचारधारा पर भी सवाल उठाए गए हैं। शौरी लिखते हैं कि सावरकर गाय को पूजनीय नहीं मानते थे। उनके लिए गाय केवल भैंस, घोड़े या कुत्ते की तरह एक उपयोगी पशु थी। यह विचार हिंदुत्ववादी संगठनों के गौ-पूजा और गौ-संरक्षण के एजेंडे के खिलाफ जाता है।

गांधी को नहीं माना स्वतंत्रता संग्राम का नायक

शौरी ने यह भी दावा किया कि सावरकर ने अपनी किताबों में महात्मा गांधी का नाम स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में शामिल नहीं किया। उनका कहना था कि गांधी की सत्य, अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा दक्षिणपंथी गुटों के लिए असुविधाजनक थी, इसलिए सावरकर को एक नए ‘आइकॉन’ के रूप में स्थापित किया गया।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर भी दावे

अरुण शौरी ने यह भी दावा किया है कि सावरकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के संघर्ष को भी अपने पक्ष में दिखाने की कोशिश करते थे। सावरकर का कहना था कि आईएनए (आजाद हिंद फौज) उनके निर्देशों पर काम कर रही थी। लेकिन जब नेताजी ने बर्मा पर आक्रमण किया, तब सावरकर समर्थक हिंदू महासभा के सदस्य अंग्रेजों के साथ खड़े थे और उन्होंने आज़ाद हिंद फौज का समर्थन नहीं किया।

इतिहास के साथ छेड़छाड़ का आरोप

किताब में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि सावरकर अपने लेखन में बार-बार अपने विचार बदलते रहे। उन्होंने 1907 में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बताया, लेकिन 1923 में लिखी अपनी किताब ‘हिंदुत्व’ में उन्होंने मुसलमानों को पूरी तरह अलग करने की विचारधारा अपनाई

गांधी के साथ दोस्ती का झूठा दावा?

अरुण शौरी ने इस किताब में सावरकर के गांधी से जुड़े एक झूठे दावे का भी खुलासा किया है। गांधी की हत्या के मुकदमे में जब सावरकर को आरोपी बनाया गया, तो उन्होंने कहा कि “हम गांधी के अच्छे दोस्त थे, हम लंदन में एक साथ रहते थे।”

लेकिन ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि यह दावा गलत था। 1908 में जब सावरकर लंदन में थे, तब गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे। गांधी केवल एक रात के लिए इंडिया हाउस में ठहरे थे, लेकिन सावरकर ने इसे “साथ में रहने” का दावा बताया।

क्या सावरकर को जानबूझकर नायक बनाया गया?

अरुण शौरी के अनुसार, सावरकर को नायक के रूप में प्रस्तुत करने के पीछे तीन प्रमुख कारण हैं:

  1. महात्मा गांधी की छवि को कमजोर करना, क्योंकि गांधी का सत्य, अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता का विचार कुछ लोगों को असुविधाजनक लगता है।
  2. नायकों की कमी – भगत सिंह और नेताजी बोस को अपनाना मुश्किल था, क्योंकि वे क्रमशः मार्क्सवादी और धर्मनिरपेक्षता के समर्थक थे।
  3. स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी की कमी – कुछ समूह स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा नहीं थे, इसलिए वे सावरकर को स्वतंत्रता सेनानी घोषित कर, स्वयं को आजादी की लड़ाई से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं

क्या इस किताब से बदलेगी सावरकर की छवि?

अरुण शौरी की इस किताब ने सावरकर को लेकर नए सिरे से बहस छेड़ दी है। इससे पहले भी सावरकर को लेकर राजनीतिक और ऐतिहासिक विवाद होते रहे हैं। लेकिन शौरी की किताब उन तथ्यों और दस्तावेजों पर आधारित है, जो पहले सार्वजनिक डोमेन में नहीं थे।

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस किताब पर दक्षिणपंथी संगठनों, भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों की क्या प्रतिक्रिया आती है। क्या सावरकर की छवि में कोई बदलाव आएगा या फिर यह किताब भी एक और राजनीतिक बहस का विषय बनकर रह जाएगा।

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