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दिल्ली दंगों की जाँच पर सवाल: कोर्ट ने क्यों लगाई पुलिस को फटकार?

दिल्ली के मुस्तफ़ाबाद इलाके में खींची गई यह तस्वीर 26 फरवरी 2020 की है। सांप्रदायिक हिंसा के दौरान दंगाइयों ने कई दुकानों और घरों को आग के हवाले कर दिया था। इस हिंसा में 53 लोगों की जान गई, जिनमें 40 मुसलमान और 13 हिंदू थे। सैकड़ों लोग घायल हुए, और करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुआ।

अब, पाँच साल बाद, बड़ा सवाल यह है कि पीड़ितों को कितना इंसाफ़ मिला?

न्यायपालिका की तल्ख़ टिप्पणी

दिल्ली के कड़कड़डूमा कोर्ट के एडिशनल सेशन जज विनोद यादव ने दंगों की जाँच पर गंभीर सवाल उठाए हैं। अपने दो फ़ैसलों में उन्होंने कहा:

“जब इतिहास दिल्ली दंगों को देखेगा तो यह बात जरूर चुभेगी कि जाँच एजेंसी ने सही तरीक़े से और आधुनिक वैज्ञानिक तरीक़ों का इस्तेमाल करके जाँच नहीं की। यह विफलता लोकतंत्र के पहरेदारों को निश्चित रूप से परेशान करेगी।”

उन्होंने यह भी कहा कि पुलिस की जाँच इतनी ख़राब थी कि अदालत की आँखों में बस धूल झोंकने की कोशिश की गई।

758 एफआईआर, लेकिन इंसाफ़ कहाँ?

दिल्ली पुलिस ने दंगों से जुड़े कुल 758 एफआईआर दर्ज कीं और 2,000 से अधिक गिरफ्तारियां कीं। लेकिन, बीबीसी हिंदी के अनुसार, बहुत कम मामलों में अभियुक्तों को दोषी ठहराया गया।

बीबीसी ने 126 अदालती फ़ैसलों का विश्लेषण किया, जिससे ये चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए:

  • 80% से ज़्यादा मामलों में अभियुक्त बरी हुए या डिस्चार्ज कर दिए गए।
  • 120+ फ़ैसलों में सिर्फ़ 20 केसों में दोष सिद्ध हुआ।
  • 12 अभियुक्तों ने खुद गुनाह क़बूल किया, लेकिन उन्हें मामूली सज़ा मिली।
  • 62 हत्या के मामलों में सिर्फ़ 1 केस में अपराधी ठहराया गया।
  • 19 मामलों में दोष साबित हुआ, लेकिन 94 मामलों में अभियुक्त बरी हो गए।

पुलिस की नाकामी के कारण

कोर्ट में पेश मामलों की स्टडी करने के बाद कुछ बड़े कारण उभरकर सामने आए, जिनकी वजह से अभियुक्त बरी हुए:

  1. गवाह अपने बयान से मुकर गए: 49 मामलों में मुख्य गवाहों ने पुलिस की कहानी को अदालत में ख़ारिज कर दिया।
  2. पुलिस गवाह अविश्वसनीय साबित हुए: 66 मामलों में पुलिस अधिकारी ही मुख्य गवाह थे, लेकिन उनके बयान कोर्ट में टिक नहीं पाए।
  3. वीडियो सबूत कोर्ट में साबित नहीं हो सके: 16 मामलों में पुलिस ने वीडियो को सबूत के तौर पर रखा, लेकिन वे कोर्ट में टिक नहीं सके।
  4. पहचान में देरी: कई मामलों में अभियुक्तों की पहचान महीनों बाद कराई गई, जिससे कोर्ट में संदेह पैदा हुआ।
  5. जाँच अधिकारी की याददाश्त खोने का दावा: कम से कम 9 मामलों में एक ASI ने दावा किया कि उन्हें याददाश्त खोने की बीमारी हो गई थी। कोर्ट में उनके विरोधाभासी बयान सामने आए।

कोर्ट की कड़ी टिप्पणियाँ और पुलिस पर जुर्माना

  • 50 से अधिक मामलों में कोर्ट ने पुलिस की जाँच की आलोचना की।
  • कुछ मामलों में अदालत ने कहा कि चार्जशीट बिना जाँच के दाखिल की गई और सिर्फ़ केस बंद करने के लिए दिखावटी गवाह बनाए गए।
  • एक मामले में कोर्ट ने कहा कि वीडियो सबूत के साथ छेड़छाड़ कर निर्दोष व्यक्ति को फँसाने की कोशिश की गई
  • कम से कम दो मामलों में कोर्ट ने पुलिस पर 25,000 रुपये का जुर्माना लगाया
  • कोर्ट ने कई मामलों में दोबारा जाँच के आदेश दिए, यह दर्शाता है कि जाँच में गंभीर ख़ामियाँ थीं।

वकीलों की राय: कमजोर जाँच के कारण ढह गए केस

दिल्ली दंगों के 100 से ज़्यादा मामलों से जुड़े वकील अब्दुल ग़फ़्फ़ार कहते हैं:
“आमतौर पर पुलिस अफ़सर के पास सीमित केस होते हैं, इसलिए वे बेहतर जाँच कर पाते हैं। लेकिन दंगों में इतने केस आए कि 80-90% मामलों में जाँच उस स्तर की नहीं हो पाई।”

रक्षपाल सिंह, जो कई दंगा मामलों में बचाव पक्ष के वकील हैं, कहते हैं:
“पुलिस ने जल्दबाज़ी में केस तैयार किए, जिसमें सबूतों की भारी कमी थी। अभियुक्तों की पहचान ठीक से नहीं हुई और गवाह भी भरोसेमंद नहीं थे।”

निष्कर्ष: क्या पीड़ितों को मिलेगा इंसाफ़?

दिल्ली दंगों को पाँच साल हो गए, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अधिकांश मामलों में अभियुक्त बरी हो रहे हैं, पुलिस की जाँच पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं, और पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिला

कई मामलों में अदालत ने पुलिस को कड़ी फटकार लगाई, लेकिन अब तक सिर्फ़ 20 मामलों में दोष सिद्ध हो पाया है, जबकि 758 एफआईआर दर्ज की गई थीं

क्या पीड़ितों को इंसाफ़ मिलेगा? या यह जाँच भी इतिहास में एक और विफलता बनकर रह जाएगी?

साभार : BBC News

संपादन : सय्यद फेरोज़ आशिक

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