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वक्फ संशोधन बिल: संसद की सीढ़ियों से सुप्रीम कोर्ट की चौखट तक पहुँची सियासत की लड़ाई— विशेष रिपोर्ट, खासदार टाइम्स

वक्फ संशोधन विधेयक अब महज़ एक दस्तख़त दूर है। संसद के दोनों सदनों में बहस, विरोध, और अनुपस्थिति के तमाम राजनीतिक नाटकों के बाद यह बिल पारित हो चुका है। अब बस राष्ट्रपति की मुहर बाकी है, जो इस बिल को कानून का दर्जा दे देगी। लेकिन यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। असल लड़ाई अब उस चौखट पर दस्तक दे चुकी है, जहाँ संविधान की आत्मा का संज्ञान लिया जाता है — भारत का सर्वोच्च न्यायालय।

लोकसभा और राज्यसभा में इस बिल को लेकर जो राजनीति चली, वह उतनी ही चौंकाने वाली थी जितनी चुप्पी उस समय थी जब इस विधेयक को विपक्ष ने अस्वीकृति के बजाय अनुपस्थिति से “स्वीकृति” दी। शरद पवार की पार्टी का बीमारी का बहाना और अन्य सहयोगी दलों की चुप्पी ने कहीं न कहीं एक बड़ा संदेश दिया — कि सियासी साझेदारी कभी-कभी मौन समर्थन के रूप में सामने आती है।

नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू, चिराग पासवान और अजित पवार जैसे नाम जो एनडीए के सहयोगी हैं, अचानक इस पूरी प्रक्रिया में जैसे गायब हो गए। क्या यह सब एक सोची-समझी रणनीति थी? क्या वक्फ संशोधन बिल की आड़ में इन नेताओं की “प्रासंगिकता” को समाप्त करने का एक सियासी अध्याय लिखा जा रहा था?

विधानसभा में हंगामा करने वाले, सड़कों पर उतरने वाले, बयानबाज़ी करने वाले अब सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा चुके हैं। कांग्रेस, AIMPLB और कई मुस्लिम संगठन इस कानून को संविधान के विरुद्ध बता रहे हैं। लेकिन सवाल सिर्फ कानूनी नहीं है। यह लड़ाई अब “धार्मिक पहचान” और “राजनीतिक अस्तित्व” की बन चुकी है।

‘वक्फ बाय यूजर’ को हटाने का फैसला न केवल संपत्ति के अधिकार से जुड़ा है, बल्कि उस लंबे सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास से भी, जिसे दस्तावेज़ों से नहीं, परंपरा से प्रमाणित किया जाता रहा है। मस्जिदें, कब्रिस्तान, मदरसे — जिनकी पहचान हजारों साल पुरानी है, अब कागज़ मांग रही है सरकार। और यही वह बिंदु है जहाँ से जनभावनाओं की जड़ें हिलती हैं।

इस बिल का एक और पहलू है — वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिम और महिलाओं की नियुक्ति। सरकार इसे समावेशिता कहती है, विपक्ष इसे हस्तक्षेप। और इस हस्तक्षेप की सीमा क्या है, यह अब संविधान की व्याख्या करेगा।

संघीय ढांचे पर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं। ज़मीन राज्यों का विषय है, लेकिन अब निर्णय का अधिकार उस अधिकारी को मिल रहा है जो सीधे तौर पर केंद्र से जुड़ा होता है। यह सिर्फ अधिकारों का नहीं, बल्कि नियंत्रण का संघर्ष है — जिसमें राज्यों की संप्रभुता सवालों के घेरे में आ रही है।

इस पूरे घटनाक्रम में दिलचस्प यह है कि जिन मुद्दों पर पार्टियाँ चुनावों में वादे करती हैं, वही मुद्दे जब कानून का रूप लेते हैं तो सबसे पहले वही पार्टियाँ उन्हें अस्वीकार करती हैं। और यहीं से शुरू होता है लोकतंत्र का असली परीक्षण।

संसद ने जो किया, वह विधायी प्रक्रिया थी। लेकिन अब संविधान की आत्मा पर परख की बारी है। सुप्रीम कोर्ट अब तय करेगा कि यह कानून संवैधानिक है या संविधान से परे है। और शायद इस फैसले के साथ तय होगी कई राजनीतिक दलों की साख, कई नेताओं की प्रासंगिकता और भारत के अल्पसंख्यकों की धार्मिक आज़ादी की नई परिभाषा।

यह सिर्फ एक कानून नहीं, एक प्रतीक बन चुका है — सत्ता, संपत्ति और सियासत के उस त्रिकोण का, जिसमें धर्म को सबसे निचले कोने में खड़ा कर दिया गया है।

(अंतिम फैसला अभी बाकी है।)

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