6 दिसंबर 1992: बाबरी विध्वंस के तीन कारसेवक जिन्होंने बाद में अपनाया इस्लाम धर्म
अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान अनेक हिंदू संगठनों से जुड़े कारसेवकों ने इस ऐतिहासिक ढांचे को गिराने में भाग लिया। इस घटना ने न केवल भारतीय राजनीति को बदल दिया बल्कि इसमें शामिल लोगों की जिंदगी पर भी गहरा असर डाला। बाबरी विध्वंस में सक्रिय भूमिका निभाने वाले तीन प्रमुख कारसेवकों—बलबीर सिंह, योगेंद्र पाल, और शिव प्रसाद—की कहानियां यह साबित करती हैं। उन्होंने बाद में इस्लाम धर्म अपना लिया और उनके जीवन की दिशा पूरी तरह बदल गई।
बलबीर सिंह बने मोहम्मद आमिर
हरियाणा के पानीपत में जन्मे बलबीर सिंह ने बाबरी विध्वंस में शामिल होने के बाद गहरी आत्मग्लानि महसूस की। उनके पिता दौलतराम, जो एक सच्चे गांधीवादी थे, ने विभाजन के दौरान सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा दिया था। पिता के मूल्यों से प्रेरित होकर, बलबीर ने 1993 में इस्लाम धर्म स्वीकार कर अपना नाम मोहम्मद आमिर रख लिया। बाद में उन्होंने अपनी जिंदगी मानवता की सेवा में समर्पित कर दी और सैकड़ों मस्जिदों के पुनर्निर्माण में योगदान दिया।
योगेंद्र पाल बने मोहम्मद उमर
बलबीर सिंह के साथी योगेंद्र पाल ने भी इस्लाम धर्म अपनाया और अपना नाम मोहम्मद उमर रख लिया। बाबरी विध्वंस के बाद उत्पन्न सांप्रदायिक हिंसा और समाज में बढ़ते तनाव ने उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित किया। उन्होंने बताया कि उन्होंने इस्लाम में शांति और करुणा का संदेश पाया, जो उनकी आंतरिक पीड़ा को दूर करने में सहायक हुआ।
शिव प्रसाद बने मोहम्मद मुस्तफा
बजरंग दल के नेता रहे शिव प्रसाद, जो 6 दिसंबर 1992 को 4,000 कारसेवकों को प्रशिक्षण देने वालों में शामिल थे, ने इस घटना के बाद गहरे अवसाद का सामना किया। बाबरी विध्वंस और उसके बाद हुए दंगों ने उनके मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाला। लंबे समय तक इलाज के असफल प्रयासों के बाद, 1999 में शारजाह में काम करते हुए उन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया और मोहम्मद मुस्तफा के नाम से पहचाने जाने लगे।
धर्म परिवर्तन का कारण और नई राह
इन तीनों व्यक्तियों ने धर्म परिवर्तन के बाद अपने जीवन को साम्प्रदायिक सौहार्द और शांति स्थापित करने के लिए समर्पित कर दिया। मोहम्मद आमिर ने एक बार अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि बाबरी विध्वंस का हिस्सा बनने का पछतावा उन्हें हर दिन आत्मविश्लेषण के लिए मजबूर करता था। उन्होंने इंसानियत की सेवा में मस्जिदों के पुनर्निर्माण और शिक्षा के प्रचार-प्रसार का काम शुरू किया।
बाबरी विध्वंस का असर और सबक
1992 की यह घटना भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, जिसने राजनीति, समाज और धर्म के ताने-बाने को गहराई से प्रभावित किया। इन तीनों की कहानियां न केवल आत्मशुद्धि की प्रेरणा देती हैं, बल्कि यह भी सिखाती हैं कि हिंसा और नफरत के रास्ते पर चलने से अंततः पछतावा ही मिलता है।
यह घटनाएं हमें यह याद दिलाती हैं कि धर्म और राजनीति से ऊपर मानवता का स्थान है, और व्यक्तिगत सुधार की राह कभी भी शुरू की जा सकती है।