देशभक्ति या अंधभक्ति: क्या पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे से देश ख़तरे में चला गया?
लेखक : सय्यद फेरोज़ आशिक

भारत, एक लोकतांत्रिक गणराज्य, जहां संविधान सर्वोपरि है, वहां आज भीड़ और सत्ता द्वारा परिभाषित न्याय का नया चेहरा उभर रहा है। हाल की दो घटनाएँ इस ओर संकेत करती हैं कि देशभक्ति का जज्बा कैसे तर्क को दरकिनार कर भावना को न्याय का मानदंड बना रहा है।
पहली घटना उत्तर प्रदेश के संभल की है, जहां एक धार्मिक स्थल को लेकर विवाद ने कानूनी और सामाजिक अशांति को जन्म दिया। पुलिस ने भारी संख्या में गिरफ्तारियां कीं, जिनमें एक ऐसी महिला भी शामिल थी, जो छत पर चढ़ने में असमर्थ थी। बाद में पुलिस ने अपनी गलती मानी और उसे छोड़ दिया, लेकिन क्या इससे 87 दिन की नाइंसाफी मिट सकती है?
दूसरी घटना महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग की है, जहां एक क्रिकेट मैच के दौरान कथित नारेबाजी के चलते एक किशोर और उसके पिता को गिरफ्तार किया गया। कानून की सख्ती यहां तक बढ़ी कि न केवल गिरफ्तारी हुई बल्कि प्रशासनिक बुलडोजर न्याय ने उनके व्यवसाय को भी मिटा दिया। सुप्रीम कोर्ट ने “त्वरित बुलडोजर न्याय” पर रोक लगाने का आदेश दिया था, लेकिन यह आदेश उस “देशभक्ति” के आगे निष्क्रिय हो गया, जिसे सत्ता और समाज के एक बड़े वर्ग ने मिलकर परिभाषित किया है।
इस पूरे घटनाक्रम में एक पैटर्न उभरकर सामने आता है—देशभक्ति के नाम पर तर्क को दबा दिया जाता है, भावना को उकसाया जाता है और कानून को मनचाही दिशा में मोड़ा जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो यह कोई नई प्रवृत्ति नहीं है। इतिहास हमें बताता है कि भीड़तंत्र जब न्याय करने लगता है, तो कानून व्यवस्था की बुनियादें कमजोर पड़ने लगती हैं।
इस बीच, देश में बेरोजगारी बढ़ रही है, स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक कल्याण पर सरकार का निवेश घटता जा रहा है, लेकिन बहस का केंद्र इन बुनियादी मुद्दों से हटकर “कौन देशभक्त और कौन देशद्रोही” पर आ टिका है।
सवाल यह है कि क्या हमारा लोकतंत्र इस चुनिंदा न्याय और भावनात्मक उन्माद को सहन कर सकता है? क्या हम अपनी अगली पीढ़ी को यह संदेश देना चाहते हैं कि सत्य का निर्धारण तर्क नहीं बल्कि भावनाओं और राजनीतिक फायदे के आधार पर किया जाएगा?
देशभक्ति आवश्यक है, लेकिन वह विवेकहीन नहीं होनी चाहिए। लोकतंत्र तभी जीवित रह सकता है जब उसमें कानून का शासन सर्वोपरि हो, न कि किसी विशेष विचारधारा या भीड़ के जज्बे का। आज आवश्यकता है कि हम संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करें, तर्क को भावना पर हावी होने दें और समाज में ऐसा माहौल बनाएं, जहां न्याय केवल चुने हुए वर्गों के लिए नहीं, बल्कि सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध हो।