संभल: नफरती मीडिया और प्रशासन ने मंदिर पर कब्जे और सांप्रदायिक तनाव की झूठी कहानी फैलाई
हाल ही में संभल प्रशासन द्वारा 1978 से बंद एक मंदिर को पुनः खोलने की खबर ने मीडिया में जोर पकड़ लिया। शाही जामा मस्जिद के पास स्थित भस्म शंकर मंदिर को लेकर प्रशासन का दावा था कि इसे अतिक्रमण विरोधी अभियान के दौरान देखा गया और फिर से खोला गया। एसडीएम वंदना मिश्रा ने बताया कि निरीक्षण के दौरान मंदिर पर नजर पड़ी और तुरंत इसे खोलने का निर्णय लिया गया। हालांकि, इस दावे को स्थानीय निवासियों और मंदिर के संरक्षक रस्तोगी परिवार ने पूरी तरह से खारिज कर दिया।
मंदिर के इतिहास का सच
मंदिर के संरक्षक धर्मेंद्र रस्तोगी ने स्पष्ट किया कि मंदिर 2006 तक नियमित रूप से खुला था और वहां पूजा होती थी। रस्तोगी परिवार के अनुसार, मंदिर कभी बंद नहीं था, और न ही वहां किसी प्रकार का अतिक्रमण हुआ। मंदिर से सटी चहारदीवारी और एक कमरा भी रस्तोगी परिवार ने ही बनवाया था। मोहल्ले के मुसलमान मंदिर की देखभाल में सहयोग करते थे और वहां किसी प्रकार के सांप्रदायिक तनाव की बात गलत है।
स्थानीय निवासी प्रदीप वर्मा और मोहम्मद सलमान ने भी इन दावों की पुष्टि की। सलमान ने बताया कि मंदिर की चाबियां हमेशा रस्तोगी परिवार के पास थीं और मुसलमानों ने मंदिर की पेंटिंग आदि में मदद की। वहीं, मोहम्मद शुएब ने कहा कि 1976 के दंगों के बाद नहीं, बल्कि 1998-2006 के बीच निजी कारणों से कुछ हिंदू परिवारों ने मोहल्ला छोड़ा।
मीडिया और प्रशासन की भूमिका
मीडिया के एक हिस्से, विशेष रूप से एएनआई और कुछ टीवी चैनलों ने इस घटना को हिंदू-मुसलमान विवाद के रूप में पेश किया। इन रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि मंदिर 40 वर्षों से बंद था और इसे हाल ही में ‘खोजा’ गया। जबकि स्थानीय निवासियों और फैक्ट-चेकिंग वेबसाइट आल्ट न्यूज ने इन दावों को खारिज कर दिया। आल्ट न्यूज के जुबैर अहमद ने एएनआई पर फर्जी नैरेटिव बनाने का आरोप लगाया।
सांप्रदायिक सौहार्द का संदेश
स्थानीय निवासियों ने स्पष्ट किया कि मंदिर और आसपास के इलाकों में कोई सांप्रदायिक तनाव नहीं है। मोहम्मद शारिक ने अपील की कि हिंदू समुदाय नियमित रूप से मंदिर में पूजा करें और सांप्रदायिक सद्भाव को बनाए रखें।
यह घटना एक उदाहरण है कि कैसे प्रशासन और मीडिया द्वारा फैलाए गए भ्रामक दावे वास्तविकता से कोसों दूर हो सकते हैं। संभल का भस्म शंकर मंदिर विवाद सांप्रदायिक नहीं, बल्कि मीडिया की गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग का प्रतीक बन गया। यह आवश्यक है कि खबरों की सच्चाई को परखा जाए और सांप्रदायिक सौहार्द को बनाए रखा जाए।