तीन बच्चे पैदा करने का आह्वान: मोहन भागवत के बयान का समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति पर विश्लेषण
सय्यद फेरोज़ आशिक की कलम से
हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदुओं से तीन-तीन बच्चे पैदा करने का सुझाव दिया। यह बयान ना केवल समाज के सामने आर्थिक और सांस्कृतिक सवाल खड़े करता है, बल्कि इसकी प्रासंगिकता और उद्देश्य पर भी गंभीर चर्चा की आवश्यकता है। यह बयान क्यों अव्यवहारिक है, इसे समझने के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से इसका विश्लेषण करना जरूरी है।
1. आर्थिक वास्तविकता और जनसंख्या नियंत्रण का महत्व
महंगाई और बेरोजगारी का प्रभाव
- आज भारत में एक परिवार के लिए एक बच्चे को पालना भी चुनौतीपूर्ण हो गया है।
- शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन और अन्य आवश्यकताओं की बढ़ती कीमतों ने सामान्य परिवारों को आर्थिक रूप से कमजोर बना दिया है।
- बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे देश में दो या तीन बच्चों को पालने की बात अव्यावहारिक लगती है।
- 2023 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में बेरोजगार युवाओं की संख्या दो करोड़ से अधिक है। ऐसे में अधिक बच्चे पैदा करने का आह्वान आम लोगों को और अधिक संकट में डाल सकता है।
जनसंख्या नियंत्रण में भारत की प्रगति
- भारत ने दशकों तक परिवार नियोजन पर काम किया है। 1980 और 1990 के दशकों में “हम दो, हमारे दो” का नारा बड़े पैमाने पर लागू किया गया।
- आज भारत में औसत जन्म दर 2.0 से नीचे आ गई है, जो जनसंख्या स्थिरीकरण के लिए आदर्श मानी जाती है।
- हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों ने छोटे परिवार की महत्ता को समझा है। अब अधिकतर परिवार एक या दो बच्चे तक ही सीमित रहते हैं।
बढ़ती जनसंख्या के खतरों को नजरअंदाज करना
- अधिक जनसंख्या का अर्थ है बढ़ते संसाधन संकट।
- पानी, बिजली, स्वास्थ्य सेवाएं और आवास पहले से ही सीमित हैं।
- अधिक बच्चे पैदा करना इन संसाधनों पर और दबाव डालेगा।
- विकासशील भारत को अधिक जनसंख्या की नहीं, बल्कि गुणवत्तापूर्ण जनसंख्या की आवश्यकता है।
2. सांप्रदायिक और राजनीतिक दृष्टिकोण
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश
भागवत जी का यह बयान सिर्फ जनसंख्या बढ़ाने की अपील नहीं है; यह हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच एक मनोवैज्ञानिक विभाजन पैदा करने का प्रयास प्रतीत होता है।
- यह बयान “मुसलमान अधिक बच्चे पैदा कर रहे हैं” जैसे मिथकों को हवा देता है।
- वास्तविकता यह है कि मुस्लिम समुदाय में भी जन्म दर गिर रही है, और वे भी छोटे परिवारों को प्राथमिकता देने लगे हैं।
- हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदाय परिवार नियोजन के महत्व को समझते हैं, और यह एकता सांप्रदायिक राजनीति के लिए अप्रिय है।
राजनीतिक उद्देश्य
- संघ और भाजपा लंबे समय से जनसंख्या को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के उपकरण के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं।
- यह बयान केवल जनता को ध्यान भटकाने और गैर-जरूरी मुद्दों पर बहस कराने के लिए दिया गया प्रतीत होता है।
3. सामाजिक यथार्थ और बदलता समय
परिवार की बदलती परिभाषा
- आज का समाज आर्थिक और सामाजिक रूप से अधिक व्यावहारिक हो गया है।
- माता-पिता अब केवल बच्चों की संख्या पर ध्यान नहीं देते, बल्कि उनकी शिक्षा और भविष्य की गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
- लड़कियों और लड़कों को समान महत्व देने की सोच बढ़ रही है।
- वंश बढ़ाने या धर्म के नाम पर अधिक बच्चे पैदा करने जैसी पुरानी सोच अब अप्रासंगिक हो गई है।
महिलाओं की भूमिका और अधिकार
- अधिक बच्चे पैदा करने का आह्वान महिलाओं के अधिकारों और उनकी स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को नजरअंदाज करता है।
- महिलाएं अब शिक्षा और करियर पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं। अधिक बच्चे पैदा करना उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
4. नेतृत्व का पाखंड और दोहरा मापदंड
क्या नेता खुद इस पर अमल करते हैं?
- आरएसएस और भाजपा से जुड़े अधिकतर नेताओं और कार्यकर्ताओं के परिवार छोटे हैं।
- भागवत जी और उनके संगठन ने कभी यह दिखाने की कोशिश नहीं की कि वे अपने स्वयं के सदस्यों पर इस विचारधारा को लागू कर सकते हैं।
सड़क पर आंदोलन और सांप्रदायिक हिंसा में नेता संतानें क्यों नहीं?
- हिंदूवादी नेताओं के परिवारों की संतानें दंगों या आंदोलनों में सक्रिय नहीं हैं।
- यदि यह आह्वान इतना जरूरी है, तो इसे पहले संगठन के अंदर लागू किया जाना चाहिए।
5. सरकार की जिम्मेदारियां और विफलताएं
बुनियादी समस्याओं का समाधान जरूरी
- बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, और गिरती जीडीपी जैसे मुद्दों का समाधान करना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है।
- अधिक जनसंख्या इन समस्याओं को और जटिल बनाएगी।
क्या अधिक बच्चे समस्या हल करेंगे?
- अधिक बच्चे पैदा करना समस्याओं को हल करने के बजाय और बढ़ाएगा।
- भागवत जी और उनकी विचारधारा को यह समझना चाहिए कि भारत को जनसंख्या बढ़ाने की नहीं, बल्कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत है।
निष्कर्ष: भागवत जी के आह्वान की अप्रासंगिकता
मोहन भागवत का बयान वास्तविकता और व्यावहारिकता से दूर एक काल्पनिक सोच का प्रतीक है।
- यह न केवल आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को नजरअंदाज करता है, बल्कि समाज को पुराने और अप्रासंगिक विचारों की ओर ले जाने का प्रयास करता है।
- अधिक बच्चे पैदा करने से भारत का विकास संभव नहीं है। भारत को बेहतर शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सुविधाओं की जरूरत है।
- यह बयान केवल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और राजनीतिक प्रचार का हिस्सा लगता है।
देश को आज “हम दो, हमारे दो” के सिद्धांत पर टिके रहना चाहिए और समाज को शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य के क्षेत्र में आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। भागवत जी जैसे नेताओं को वास्तविक मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए, न कि अप्रासंगिक और हास्यास्पद बयानों से ध्यान भटकाना।