ब्राह्मण नेतृत्व बनाम गुरुंग-मधेशिया: नेपाल में असंतोष और हिंदू राष्ट्रवाद की टकराहट
लेखक: सय्यद फेरोज़ आशिक (कार्यकारी संपादक)

नेपाल में बीते दिनों घटित घटनाओं को केवल “सोशल मीडिया प्रतिबंध” से जोड़कर देखना भूल होगी। असल में यह राजनीतिक अस्थिरता और हिंसा की पटकथा कई सालों से तैयार हो रही थी। सतह पर जो कुछ दिखाई देता है, उसकी गहराई जातीय तनाव, पहचान की राजनीति और बाहरी प्रभावों में छिपी है।
दूसरी तरफ गुरुंग और मधेशिया समुदायों ने “हामी नेपाल” के बैनर तले अपना आंदोलन खड़ा किया। युवा नेता सुदन गुरुंग, उद्योगपति दीपक भट्टा, शंकर ग्रुप के साहिल अग्रवाल और डॉ. संदुक रुइत जैसे चेहरे इस आंदोलन के सह-नायक बने। 4 सितंबर 2025 को सोशल मीडिया पर प्रतिबंध इस संघर्ष का “ट्रिगर प्वाइंट” साबित हुआ।
सरकार ने इसे “नियामक पंजीकरण” का मुद्दा बताया, लेकिन युवाओं के लिए यह रोज़गार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला था। आंदोलन सड़कों पर उतरा, सत्ता हिली, और प्रधानमंत्री समेत मंत्रियों ने इस्तीफे दे दिए। यहीं से CIA की भूमिका की चर्चाएँ भी तेज़ हो गईं।
हालांकि 9 सितंबर को “हामी नेपाल” अचानक आंदोलन से पीछे हट गई। सोशल मीडिया पर #BoycottHamiNepal ट्रेंड हुआ और तब मैदान संभाला काठमांडू के मेयर बालेन शाह ने। 35 वर्षीय बालेन—इंजीनियर, रैपर और स्वतंत्र राजनेता—ने पहले भी पारंपरिक राजनीति को चुनौती दी थी। वह भारतीय फिल्मों और टीवी पर प्रतिबंध लगाने, “ग्रेटर नेपाल” का नक्शा कार्यालय में टांगने और अमेरिकी राजदूत से निकट संबंधों के कारण चर्चा में रहे। अब वही आंदोलन की धुरी बन चुके हैं।
यह तस्वीर भारत के लिए चिंता की घंटी है। अगर बालेन शाह सत्ता तक पहुंचते हैं, तो HSS पर प्रतिबंध और भारत-विरोधी नीतियां लगभग तय मानी जा रही हैं। नेपाल का झुकाव वाशिंगटन की ओर और दिल्ली से दूरी का संकेत दे रहा है।
आज की स्थिति यह है कि नेपाल फिर से राजनीतिक संक्रमण के दौर में खड़ा है। हिंदू राष्ट्रवाद और जनजातीय अस्मिता की लड़ाई ने मिलकर देश को हिंसा और अराजकता की तरफ धकेल दिया है। सवाल यह है कि क्या नेपाल इस टकराव से बाहर निकल पाएगा या यह एक और दक्षिण एशियाई लोकतंत्र का पतन साबित होगा?
नेपाल के इस संकट से यह साफ है कि जब युवा पीढ़ी भ्रष्टाचार, नेपोटिज़्म और असमानता से तंग आकर सड़कों पर उतरती है, तब पुराने राजनीतिक ढांचे ढहने लगते हैं। लेकिन साथ ही यह भी उतना ही सच है कि बाहरी ताक़तें ऐसे आंदोलनों को अपने हित में मोड़ने का मौका तलाशती हैं। नेपाल आज इन्हीं दो धाराओं के बीच फंसा है—एक ओर पहचान और अस्मिता की लड़ाई, दूसरी ओर महाशक्तियों का एजेंडा।
नेपालियों ने समझ लिया है कि संकट की जड़ कहां है। अब देखना यह है कि क्या नेपाल “युवा क्रांति” से नई दिशा पाएगा या फिर यह संघर्ष और गहराई तक जाएगा।
