क्या एकनाथ शिंदे के साथ महायुति में ही हो रहा है ‘राजनीतिक गेम’? – बैठक में पदाधिकारियों ने जताई नाराज़गी

मुंबई/प्रतिनिधि
महाराष्ट्र में स्थानीय स्वराज संस्थाओं के चुनाव अब बेहद करीब हैं। किसी भी समय राज्य चुनाव आयोग की ओर से घोषणा की जा सकती है। जैसे-जैसे चुनाव का समय नज़दीक आ रहा है, वैसे-वैसे महायुति (शिवसेना-भाजपा-राष्ट्रवादी अजित पवार गट) के अंदरूनी मतभेद खुलेआम सामने आने लगे हैं।
सूत्रों के अनुसार, कई जिलों में महायुति के घटक दलों के बीच कुरघोडी (राजनीतिक खींचतान) तेज़ हो गई है। इसी पृष्ठभूमि में शिवसेना (शिंदे गट) के नेता डॉ. श्रीकांत शिंदे ने नाशिक, नागपुर, अमरावती और छत्रपती संभाजीनगर विभागों के पदाधिकारियों की बैठक बुलाई। इस बैठक में शिवसेना के कई स्थानीय नेताओं ने “युति से अलग होकर स्वतंत्र चुनाव लड़ने” की मांग रखी।
बैठक में मौजूद विधायकों और जिल्हा प्रमुखों ने कहा कि महायुति के अन्य दल “युति धर्म” का पालन नहीं कर रहे। उलट, वे हमारे विरोधियों को अपने दल में शामिल कर रहे हैं। नेताओं ने यह भी आरोप लगाया कि “हमारे ही मतदारसंघों में हमें खत्म करने का काम चल रहा है।”
बैठक के दौरान नंदुरबार के एक शिवसेना विधायक ने तो अपने ही पूर्व जिला प्रमुख पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि वह अब भाजपा के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि पार्टी के अंदर मौजूद “झारीतील शुक्राचार्य” (छिपे दुश्मन) पर ध्यान देना जरूरी है।
मुंबई को छोड़कर राज्य के कई जिलों में महायुति के भीतर गहरी फूट दिखाई दे रही है। ठाणे, कल्याण-डोंबिवली, नवी मुंबई, मीरा-भाईंदर, उल्हासनगर, वसई-विरार और भिवंडी जैसे महत्वपूर्ण नगर क्षेत्रों में भी शिवसेना-भाजपा के बीच गठबंधन को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है।
भाजपा नेताओं जैसे संजय केळकर (ठाणे) और गणेश नाईक (नवी मुंबई) के स्वतंत्र चुनाव लड़ने के बयानों के बाद, शिवसेना ने भी “स्वबळावर लढू” (स्वयं के बल पर चुनाव लड़ने) की तैयारी शुरू कर दी है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर ये मतभेद जल्द नहीं सुलझे तो इसका सीधा असर महायुति के प्रदर्शन पर पड़ेगा, जबकि विपक्ष को इसका लाभ मिल सकता है। सूत्रों के मुताबिक, यह विवाद तभी सुलझेगा जब तीनों दलों के शीर्ष नेता आपसी चर्चा कर समाधान निकालेंगे।
जल्द ही कोकण और पश्चिम महाराष्ट्र की भी बैठकें होने वाली हैं, लेकिन वहां भी स्थिति कुछ अलग नहीं है। ऐसे में महायुति के इन अंदरूनी मतभेदों को सुलझाना अब वरिष्ठ नेताओं के नेतृत्व की बड़ी परीक्षा बन गया है।